हंसता-खिलखिलाता, बेहिचक इठलाता,
धरती से जोड़ते हुए, बूँदों का नाता,
अपनी ही धुन मे चला, एक पागल,
चला अपनी ही ज़िद पे, एक बादल…
थोड़ी नमी, थोड़ा पानी लिए,
थोड़ा सा बचपन, थोड़ी जवानी लिए.
ज़रा सा बरसता, गरजता हुआ,
तंग करता हुआ, उड़ान भरता हुआ,
कभी हवा का धक्का, कभी बूँदों का भार,
कहीं गरज के डराना, कहीं हल्की सी फुहार.
बादल मस्त उड़ा जा रहा
था, कोई भी उसे ना रोक पा रहा था...
इधर बादल सोच मे था,
क्या और बादलों से मिल
के बनाए काफिला एक बड़ा सा?
या अकेले ही बहे, ओढ़ के आसमान की चादर?
नादान बादल इसी असमंजस मे पड़ा था...
बिन धूप लगे भी था रंग बादल का सांवला !
और सफेद चमकीले हीरे लूटा रहा था बावला !
बारिश रुक गयी, वो बादल पानी सा बह गया
पर गाल पे मेरे उसकी याद मे एक बूँद रह गया...
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