दिल जैसा कोई शहर नहीं,
धड़कन सी बदलती कोई पहर नहीं....
घर लौटते हुए बरसों में,
वो खुश्बू जानी पहचानी सी,
नयी दुकानों के बीच,
वो टूटी दीवार पुरानी सी,
इस नयी-पुरानी एहसास सी कोई लहर नहीं....
नये बादल भीगो देते हैं पुराने सूखेपन को,
खुश्बू याद ताज़ा कर जाती है,
नये रास्तों पे पहचानी आवाज़ पे,
मुस्कुरा के नज़र ठहर जाती है,
अपनी छत,
अपने घर सी कोई सहर नहीं....
गुज़रे दिनों की तरह,
उसकी गली से गुज़रते
हुए,
कदमों की आहिस्ता चाल कर लेना,
उसके दीदार ना होने पे,
खुद से हज़ार सवाल कर लेना,
उसे खो देने सी कोई कहर नही....
अपनो से जुड़ा,
अपनेपन से परे,
दुनियादारी मे जी रहे हैं,
अपने शहर से दूर,
मजबूरी मे जो पी रहे हैं,
इस ज़िंदगी सा कोई ज़हर नही....
दिल जैसा कोई शहर नहीं....
धड़कन सी बदलती कोई पहर नहीं...