शाम थक के जा चुकी है
हवा जुगनूओं को भी सुला चुकी है
हर फूल अपना मुखड़ा गा चुकी है
रात वहीं रुकी हुई है
चाँद वक़्त पे रुख्सत हो गया
ओस भी सारे पत्तों को धो गया
होठ मुस्कुराए, दिल रो गया
रात वहीं रुकी हुई है
मैं सोचती हूँ, कुछ कहूँ भी तो किस से?
रात का कौन सा आधा है मेरे हिस्से?
जो रात बीत गयी, और मुझसे जीत गयी
या जितनी रात बाकी है, और मेरे साथ रहने के
लिए हाँ की है…
जी भर के हँसने का मन था
जी भर के रोने की थी आरज़ू
शायद, इसी रात का इंतेज़ार था मुझे
अकेले बैठे, खुद से हो गुफ्तगू
कोई तो वजह होगी, के रात गुज़रती ना थी
कोई सोच, शायद, उसके ज़हेन से उतरती ना थी
अकेली, कुछ सर्द, कुछ सियाह…रात वहीं रुकी हुई थी
रुकी हूँ मैं बीच राह मे
खड़ी हूँ अपने हमसफर की चाह मे
इंतेज़ार है के कोई मेरा नाम ले
साथ दे और मेरा हाथ थाम ले
ऐसा मिलन, जो सारे फ़ासले दूर कर दे
सूरज आए जब तो, ज़िंदगी मे नूर कर दे…