Thursday, December 26, 2013

कटी पतंग

वो दुपहर याद है मुझे,
पतंगे उड़ रहीं थीं हर ओर,
आसमान, बिना बारिश के,
सतरंगी बिखेर रहा था,
दिल भी रंगीन हो रहा था मेरा….
.
हम मिल रहे थे पहली बार....
हवा की नयी चाल थी,
बातें शुरू हुईं...
कहते सुनते रहे हम,
कई बातें हुईं...
पेंच लड़ रहे थे कई
गुफ्तगू होती रही
.
कही सुनी बातों का
अंजाम निकलता रहा
पतंग कटने के बाद
कुछ अनसुलझी माँझें
रह गयी थी ज़मीन पे
कुछ बातें हम भी
नहीं कह पाये
.
शाम ढलने को थी
सूरज मद्धम हो चला था
पतंगे भी कम हो गये थे
मायूस लौट रहे थे कुछ लोग
टीस उठती है जब
अपनी पतंग कट जाए
हमारा साथ छूटने को था
.
दो पतंगें अब भी थी वहाँ
डूबते सूरज से खेलती हुई
हल्की छेड़, हल्की उड़ान
फासला था उनमे, मगर
जैसे कर रही हों, आखरी गुगतगु
फिर मिलेंगे किसी आसमान पे
फिर गिरेंगे किसी छत पे कभी

Monday, August 26, 2013

शरारत

मुद्दतों से कोई ज़ियारत नहीं हुई,
दिल मे भी कोई शरारत नहीं हुई

उमड़े कई एहसास ज़हेन-ओ-जिगर मे मगर,
जला सके जो हमे वो हरारत नहीं हुई

शुरू की थी जो बड़े एलान-ए-जश्न से,
मुक़म्मल अभी तक वो इमारत नहीं हुई

उम्र भर वो आते रहे बज़्म मे तुम्हारी, इश्क़
फिर भी उन्हे तुम्हारी आदत नहीं हुई


Sunday, August 25, 2013

राज़

बेपरवाही से बता देता हूँ तुम्हे सारे राज़ अपने,
और एक तुम हो, मुझसे ही छुपाते हो रंग-ए-अंदाज़ अपने

मैं बद-हाली मे भी बहाल रहता हूँ,
ये देख हो जाते हैं मुझसे, नाराज़ अपने

बुतो पे एतबार का लिहाज़ ज़रूरी है मगर,
मदद-ए-इंसान ही हो दुआ-ओ-नमाज़ अपने

गर तू है, तो तुझको भी इल्म हो रहा होगा,
वक़्त आ रहा है के दिखाओ जलवा-ए-इजाज़ अपने

तुम भी हत्यार ले के घूमते हो, इश्क़,

संभाल के इस्तिमाल करो ये अल्फ़ाज़ अपने

Tuesday, August 06, 2013

इंतेज़ांम

कभी शक़्स, कभी उसकी सोच बेवफा हो जाती है,
और कभी किसी अजनबी से ज़िंदगी आशना हो जाती है

चाँद अपनी कसम तोड़ के छुप जाता है बादलों में,
खामोश अकेली रात रुसवा हो जाती है

इश्क़ की खुशी ना सही, दर्द का ही इंतेज़ांम कर दे,
बेमतलब की ज़िंदगी सज़ा हो जाती है

तुम्हारे रूठने से ये आलम होता है,
इंतेज़ार-ए-दीदार मे साँस खफ़ा हो जाती है

Monday, August 05, 2013

शहर

दिल जैसा कोई शहर नहीं,
धड़कन सी बदलती कोई पहर नहीं....

घर लौटते हुए बरसों में,
वो खुश्बू जानी पहचानी सी,
नयी दुकानों के बीच,
वो टूटी दीवार पुरानी सी,
इस नयी-पुरानी एहसास सी कोई लहर नहीं....

नये बादल भीगो देते हैं पुराने सूखेपन को,
खुश्बू याद ताज़ा कर जाती है,
नये रास्तों पे पहचानी आवाज़ पे,
मुस्कुरा के नज़र ठहर जाती है,
अपनी छत, अपने घर सी कोई सहर नहीं....

गुज़रे दिनों की तरह, उसकी गली से गुज़रते हुए,
कदमों की आहिस्ता चाल कर लेना,
उसके दीदार ना होने पे,
खुद से हज़ार सवाल कर लेना,
उसे खो देने सी कोई कहर नही....

अपनो से जुड़ा, अपनेपन से परे,
दुनियादारी मे जी रहे हैं,
अपने शहर से दूर,
मजबूरी मे जो पी रहे हैं,
इस ज़िंदगी सा कोई ज़हर नही....

दिल जैसा कोई शहर नहीं....

धड़कन सी बदलती कोई पहर नहीं...

Thursday, August 01, 2013

जब भी मिलो

आखें आँखों मे गिरफ्तार रहे, जब भी मिलो
दरमियाँ ना कोई दीवार रहे, जब भी मिलो

ता-उम्र हम मिलते रहें मगर फिर भी
इब्तिद-ए-ताल्लुक़ जैसा ही दिल बेक़रार रहे, जब भी मिलो

सुस्त बोल, हल्की छुअन, उखड़ी साँसें
उंगलियों मे धड़कनो सी रफ़्तार रहे, जब भी मिलो

इश्क़ का जुनून सवार रहे, जब भी मिलो

रुख्सत के बाद भी खुमार रहे, जब भी मिलो

Wednesday, July 31, 2013

चाहत

दिल है आज खुले आसमान मे उड़ता परिंदा कोई,
फिर एक चाहत हुई है इसमे ज़िंदा कोई

कुछ ऐसी कढ़की है आज बिजली बादलों मे,
खुदा से लड़ने निकला है फिर बंदा कोई

सुर्ख आँखें, बेचैन साँसें, होंठों पे आह,
मेरे सनम की गली का ही है बाशिंदा कोई

आज वो हरक़त हो गयी है तुमसे इश्क़,

तुम पे एतबार ना करेगा आईंदा कोई

Friday, July 12, 2013

बेफ़िज़ूल

खुद से ही नक़ाब कर रखा है,
कैसा माहोल जनाब कर रखा है

अश्क-ओ-खूं की सियाही से लिख के,
ज़िंदगी को गीले पन्नों की किताब कर रखा है

हवाओं मे इक अजीब ताब है आज कल,
साँस लेना भी अज़ाब कर रखा है

मौसम बेवजह नहीं बदलता, इश्क़ तुमने
बेफ़िज़ूल, मिजाज़ खराब कर रखा है

Monday, July 08, 2013

जीत

कुछ तुम्हारी ख़ता, थोड़ी हमारी कमज़ोरी थी
हम नज़दीक ना आए, रखी तुमने भी दूरी थी

नज़र मिली, हाथ सरके, होठ भी हिले
लफ्ज़ आधे रहे मगर तमन्ना पूरी थी

सारी शाम गुज़र गयी एक पल मे
रुख्सत के पल तक मुलाक़ात अधूरी थी

देखा किए उन्हे, कुछ भी कहे बगेर
दिल की बात लबों तक ला के छोढ़ी थी

बहस हुई बड़ी देर तलक, दिल और दिमाग़ मे
इश्क़ या हक़ीक़त, एक की जीत ज़रूरी थी


Thursday, July 04, 2013

रात वहीं रुकी हुई है



शाम थक के जा चुकी है
हवा जुगनूओं को भी सुला चुकी है
हर फूल अपना मुखड़ा गा चुकी है
रात वहीं रुकी हुई है

चाँद वक़्त पे रुख्सत हो गया
ओस भी सारे पत्तों को धो गया
होठ मुस्कुराए, दिल रो गया
रात वहीं रुकी हुई है

मैं सोचती हूँ, कुछ कहूँ भी तो किस से?
रात का कौन सा आधा है मेरे हिस्से?
जो रात बीत गयी, और मुझसे जीत गयी
या जितनी रात बाकी है, और मेरे साथ रहने के लिए हाँ की है

जी भर के हँसने का मन था
जी भर के रोने की थी आरज़ू
शायद, इसी रात का इंतेज़ार था मुझे
अकेले बैठे, खुद से हो गुफ्तगू
कोई तो वजह होगी, के रात गुज़रती ना थी
कोई सोच, शायद, उसके ज़हेन से उतरती ना थी
अकेली, कुछ सर्द, कुछ सियाहरात वहीं रुकी हुई थी

रुकी हूँ मैं बीच राह मे
खड़ी हूँ अपने हमसफर की चाह मे
इंतेज़ार है के कोई मेरा नाम ले
साथ दे और मेरा हाथ थाम ले
ऐसा मिलन, जो सारे फ़ासले दूर कर दे

सूरज आए जब तो, ज़िंदगी मे नूर कर दे

Tuesday, July 02, 2013

वेहम

धड़कनो की रफ़्तार का इज़ाफ़ा दे गया
मेरा सनम आज एक लिफ़ाफ़ा दे गया

खत पढ़ के कुछ यूँ हुआ वेहम
जैसे दुआ पूरी होने की दुआ दे गया

पहली नज़र को गुस्ताख़ी का नाम दे के
इंतेज़ार नाम का एक सज़ा दे गया

अंजान हो के भी यूँ देखा किया मुझे

उम्मीद मुझे हर दफ़ा दे गया

परदा नशीन

जो हद्द से बढ़ के हसीन होते हैं
वो अक्सर परदा नशीन होते हैं

सूरत जितनी मासूम हो सनम की
शक़सियत से उतने ही रंगीन होते हैं

वो एक पल, जब सारे पल बे-मतलब हो जाए
ऐसे पल बेहतरीन होते हैं

कितना भी नमकीन हो पानी समंदर का

रेत पे, पेरॉं के निशान शिरीन होते हैं

Thursday, June 27, 2013

दास्तान

अपने सवालों का खुद ही जवाब देते हो,
सूखी आँखों मे अश्कों का सैलाब लेते हो

मुस्कुराहट को इकरार का नाम दे के
ख़ामाखा ही आहें बेताब लेते हो

रंगीन मिजाज़ और भी हैं मेले मे, ख़याल रहे
तुम ही नही जो मदद-ए-नक़ाब लेते हो

आँखों से शुरू हुई, वहीं ख़त्म हो गई,
जाने दिल से किस दास्तान के हिसाब लेते हो

राहें वहीं हैं, मोड़ वही, मौसम भी एक सा
बदलती है ज़िंदगी जब पहला कदम नायाब लेते हो

Wednesday, June 26, 2013

थोड़ी खिड़की खोलो

थोड़ी खिड़की खोलो, हवा आने दो
रुआसा दिन है, निकल जाने दो

दो दिन का सुरूर कुछ रोज़ ही रहता है
बरसों की तिश्नगी को सवर जाने दो

सफ़र मे शुरू हुई चिंगारी से जो
इस चाहत की आग मे जल जाने दो

बारिश का मौसम आएगा जाएगा
दिल के दरिया को भर जाने दो

तुम्हारे इकरार पे जान अटकी है

एक साँस लेने दो, मार जाने दो

Monday, June 24, 2013

कुदरत का ज़ोर है

कुदरत का ज़ोर है
हो रहा जो शोर है

साँसें थोड़ी, आहें बढ़ती जा रही हैकुदरत का ज़ोर है
कुछ इंसानो को इसमे भी मुनाफ़े होड़ है

गुस्ताख़ी है आदमी की
सज़ा काटता कोई ओर है

नाराज़ आसमान, ख़फा ज़मीन
बेरहेमी का ना अंत ना कोई छोर है

इंसान मरे, इंसानियत ख़त्म हुई

इस रात की क्या कोई भोर है?

सोहबत

रूठने की आदत नही उनकी
रुकती मुस्कुराहट नही उनकी

हमे सवाल पूछना नही आता
और दिल खोलने की फ़ितरत नही उनकी

लोग मेरा नाम ले के नसीहत देते हैं
अच्छी सोहबत नही उनकी

वो हमसे दिल लगा बैठे इश्क़

आई ऐसी बद-नौबत नही उनकी

Thursday, June 20, 2013

तक़दीर



जो दुआ मे माँगी थी तक़दीर की तरह
बाँध गयी मुझे ज़ंजीर की तरह

बेनज़ीर होने का इक ये भी तरीका है
घुल जाओ ज़हेन मे रंग-ए-तस्वीर की तरह

लफ़्ज़ों पे क़ाबू रखना है मुनासिब
लड़कपन मे चुभ जाते है तीर की तरह

साथी ना बन सका मेरा कभी मगर
वो साथ ही रहा मेरे ज़हीर की तरह

कहीं एहसास नही हैं, कभी अल्फ़ाज़ गुम
पुराने काग़ज़ पे किसी अधूरे तदबीर की तरह

मासूमियत और बे-फ़िक्री मे थोड़ा फ़र्क है
होश को संभालो अपने ज़मीर की तरह


- ishQ
20th June 2013

Wednesday, June 19, 2013

इब्तिदा

आज एक नई इब्तिदा हो
तुम वही, पर नयी अदा हो

चाहने वाले तो बहुत हैं तुम्हारे
कुछ यूँ करो, के तुम खुद फिदा हो

वादियाँ खोले खड़ी है बाहें
गूँज तुम्हारी है, चाहे कोई सदा हो

क्यों खोजते हो कोई अपने जैसा?

तुम जहाँ मे सबसे जुदा हो

Tuesday, June 18, 2013

परदा

खुद से परदा बार बार करते हो
क्यों नही खुद पे एतबार करते हो?

तुम्हे भी इल्म है ज़िंदगी का
क्यों हक़ीक़त से बँध अबसार करते हो?

खुद को सज़ा दे के क्या मिलेगा तुम्हे?
किस मक़सद से खुद पे वार करते हो?

महफ़िल सजी है मिलने मिलाने को
ये क्या पिंजरा तेयार करते हो?

खुद से बातें करना अच्छी बात है
पर यूँ नही जैसे तुम ना-गवार करते हो

हथेली थाम लो खुशी का दौड़ के

क्या झिझक है, क्यों इंतेज़ार करते हो?

सैलाब

राह मे चलते हुए एक जनाब मिल गये
भूले हुए, खोए कुछ ख्वाब मिल गये

यादों के सिरे ले के दो कदम पीछे जो चले
ज़िंदगी के कुछ अधूरे हिसाब मिल गये

खुद से भी पूछने से घबराते थे हम
आज उन सब सवालों के जवाब मिल गये

तूफ़ानो मे फ़ासले तय करते गये,
अचानक, आज पुराने कुछ सैलाब मिल गये

उम्मीद मे उठाए रहते थ हाथ
दुआओं को आज सवाब मिल गये

सालों चली सर्द हवा जुदाई की
आज की मुलाक़ात मे मुद्दत के ताब मिल गये


Monday, June 17, 2013

मौसम बदल गया

वो याद आए, मौसम बदल गया
पानी बरसा और जिस्म जल गया

ख़यालों मे रात कट गई
सोचते हुए दिन निकल गया

मुद्दतों किया इंतेज़ार जिसका
आप मिले, गुज़र वो पल गया

नज़र मिली, नज़र झुक गई
वो मुस्कुराए, दिल बहेल गया

इक कसक उठी आरज़ू-ए-दिल से
इक कसम याद आई, इश्क़ संभल गया



Majboori

हंसता-खिलखिलाता, बेहिचक इठलाता,
धरती से जोड़ते हुए, बूँदों का नाता,
अपनी ही धुन मे चला, एक पागल,
चला अपनी ही ज़िद पे, एक बादल

थोड़ी नमी, थोड़ा पानी लिए,
थोड़ा सा बचपन, थोड़ी जवानी लिए.
ज़रा सा बरसता, गरजता हुआ,
तंग करता हुआ, उड़ान भरता हुआ,
कभी हवा का धक्का, कभी बूँदों का भार,
कहीं गरज के डराना, कहीं हल्की सी फुहार.
बादल मस्त उड़ा जा रहा था, कोई भी उसे ना रोक पा रहा था...

इधर बादल सोच मे था,
क्या और बादलों से मिल के बनाए काफिला एक बड़ा सा?
या अकेले ही बहे, ओढ़ के आसमान की चादर?
नादान बादल इसी असमंजस मे पड़ा था...

बिन धूप लगे भी था रंग बादल का सांवला !
और सफेद चमकीले हीरे लूटा रहा था बावला !
  
बारिश रुक गयी, वो बादल पानी सा बह गया

पर गाल पे मेरे उसकी याद मे एक बूँद रह गया...