Wednesday, May 14, 2014

इल्ज़ाम

हर इंतेहाँ का अंजाम, ज़रूरी नही
हर सज़ा का इल्ज़ाम, ज़रूरी नही

तुम्हारी गुज़ारिश ज़रूरी है मगर
आए उनका भी सलाम, ज़रूरी नही

तराना-ए-महफ़िल गुनगुनाया भी अगर
तुम्हारे लिए हो वो पयाम, ज़रूरी नही

उम्र भर जिस फ़ैसले का इंतेज़ार हो
आख़िर हो जाए अपने नाम, ज़रूरी नही

हर रात अंधेरा लाती है मगर
सियाह हो हर शाम, ज़रूर नही

ज़िंदगी


.
गर तू सब जानती है, ज़िंदगी?
फिर क्यों हिसाब मांगती है, ज़िंदगी?
.
वो जो बदल गया मेरे अंदर,
उस शक़्स को पहचानती है, ज़िंदगी?
.
दर्द में भी जीना है हंसते हुए
ये कैसी दीवानगी है, ज़िंदगी?
.
उसके जाते ही सब वीरान हो गया,
बस साँसों में इक तूफान सी है, ज़िंदगी.
.
क्या कुछ कह गया जाते-जाते
मुझे अब तक हैरानगी है, ज़िंदगी.
.
ishQ
15th May 2014