Thursday, December 26, 2013

कटी पतंग

वो दुपहर याद है मुझे,
पतंगे उड़ रहीं थीं हर ओर,
आसमान, बिना बारिश के,
सतरंगी बिखेर रहा था,
दिल भी रंगीन हो रहा था मेरा….
.
हम मिल रहे थे पहली बार....
हवा की नयी चाल थी,
बातें शुरू हुईं...
कहते सुनते रहे हम,
कई बातें हुईं...
पेंच लड़ रहे थे कई
गुफ्तगू होती रही
.
कही सुनी बातों का
अंजाम निकलता रहा
पतंग कटने के बाद
कुछ अनसुलझी माँझें
रह गयी थी ज़मीन पे
कुछ बातें हम भी
नहीं कह पाये
.
शाम ढलने को थी
सूरज मद्धम हो चला था
पतंगे भी कम हो गये थे
मायूस लौट रहे थे कुछ लोग
टीस उठती है जब
अपनी पतंग कट जाए
हमारा साथ छूटने को था
.
दो पतंगें अब भी थी वहाँ
डूबते सूरज से खेलती हुई
हल्की छेड़, हल्की उड़ान
फासला था उनमे, मगर
जैसे कर रही हों, आखरी गुगतगु
फिर मिलेंगे किसी आसमान पे
फिर गिरेंगे किसी छत पे कभी