कुदरत का ज़ोर है
हो रहा जो शोर है
साँसें थोड़ी, आहें बढ़ती जा रही है कुदरत का ज़ोर है
कुछ इंसानो को इसमे भी मुनाफ़े होड़ है
गुस्ताख़ी है आदमी की
सज़ा काटता कोई ओर है
नाराज़ आसमान, ख़फा ज़मीन
बेरहेमी का ना अंत ना कोई छोर है
इंसान मरे, इंसानियत ख़त्म हुई
इस रात की क्या कोई भोर है?
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