Tuesday, August 06, 2013

इंतेज़ांम

कभी शक़्स, कभी उसकी सोच बेवफा हो जाती है,
और कभी किसी अजनबी से ज़िंदगी आशना हो जाती है

चाँद अपनी कसम तोड़ के छुप जाता है बादलों में,
खामोश अकेली रात रुसवा हो जाती है

इश्क़ की खुशी ना सही, दर्द का ही इंतेज़ांम कर दे,
बेमतलब की ज़िंदगी सज़ा हो जाती है

तुम्हारे रूठने से ये आलम होता है,
इंतेज़ार-ए-दीदार मे साँस खफ़ा हो जाती है

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