Monday, December 05, 2011

नए फ़साने




न चाहते हुए भी गर किसी महफ़िल जाते हैं
उसके ज़िक्र पे मुस्कुरा के हम बिस्मिल जाते हैं


इक उसके दीद की आरज़ू होती है जब कभी
साथ हज़ारों तमन्ना-ओ-एहसास हो शामिल जाते हैं


जब सबके पास इक दिल है महसूस करने को
सब न जाने क्यों किये अफ़सोस-ए-दिल जाते हैं



मिलता हैं मुझसे बरसों की पहचान हो जैसे
उसके असरार-ए-वाकिफ़ से नए फ़साने मिल जाते हैं


करना है इज़हार-ए-दिल कितना कुछ उससे मगर
नज़र मिलती है ”इश्क“ से और लब सिल जाते हैं





बिस्मिल = sacrifice / lover's bait

असरार-ए-वाकिफ़ = mysterious introduction



ishQ

7th December 2011

2 comments:

Rajat Bajaj said...

Are kuch Bangla mein bhi likho .

Shipra said...

Super lykeee :)