Tuesday, November 27, 2012

"महफ़िल-ए-ना-मंज़ूर"



जब भी पूछा  गया, वही  ठिकाना ही रहा 
सुरूर हो न हो, गुरूर-ए-मैखाना ही रहा 

कोई भी हो, अनजान चेहरा या माज़ी का मिराज 
जिस से भी मिले मिजाज़ आशिकाना ही रहा 

हाँ  ये सच है के अब हम साथ नहीं 
पर हम मिले भी थे, ये अफसाना ही रहा 

कुछ तो चाहिए महफ़िल-ए-ना-मंज़ूर का सबब 
हर बार की तरह इस शाम भी तेरा बहाना ही रहा 

उम्र भर "इश्क़"  की बातों का भरोसा न किया
हर इक बात पे कसमों का खाना ही रहा 


ishQ
28th November 2012

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