Tuesday, October 16, 2012

कोई और ऐसा और कहाँ है




मैंने उसे  कभी  देखा  ही  नहीं  तस्सली  से 
उसकी  अब  उम्र  हो  चली  है  शायद....

रात  मैं  सो  गया  तो  भी  जगी  रहती  थी 
और  भागता  हुआ  ही  पाया  सुबह  आँखें  जो  मैंने  खोली  है....

हर दिन, वक़्त  कम  है इसलिए  खुद  भूखी   रह  के 
घर  पे  तैयार बाकी सबका  खाना  किया 
अपने मैले कपड़ो  को बेपरवाह किये 
हर एक को नए कपड़ो मे रवाना किया

जब हर किसी ने मना कर दिया
तब आखिर मे उसकी साड़ी के कोने से रुपये निकले
और मेरी हथेली मे देते हुए हर बार कहा 
ये  आखरी  बार  है.....

उसका चेहरा आज तक बदला नहीं, वैसी  ही  दिखती  है  जैसी  मुझे  हमेशा  से  याद  है
इसलिए कभी लगा ही नहीं, के  दरअसल वो  अब  कमज़ोर सी  हो  गयी  है 
अब  वो  भाग नहीं  पाती.....
आँखों  पे  चश्मा  लग  गया  है, आवाज़  हलकी  हो  उठी  है
अब वो रात भर जाग नहीं पाती....

हाल  ही  में  मैंने  उससे  कहा भी, "माँ, अब  तो  थोड़ा  आराम  कर  लो"
तो  वो  बोली, "माँ हूँ; तुम लोगों को आराम करते देख मुझे आराम मिलता है"
बोली, आज कल थोड़ा जल्दी थक ज़रूर जाती हूँ
पर मैं जानती हूँ, मेरे बच्चे मुझे संभाल लेंगे

सच तो ये है के आज तक वो मुझे संभाल रही है
आज तक मुझे बच्चे की तरह ही पाल रही है

कोई और ऐसा और कहाँ है
मेरी दुनिया का दूसरा नाम ही माँ है

ishQ
16th Oct 2012

1 comment:

Arti Gupta said...

Silent words with strong confession...