सूरज की तपिश जिस्म जलाती है
चाँद रात को आता है
तो क्या वो ठंडा टुकड़ा है आसमान का?
क्योंकि ज़मीन को मिलता नही आराम कभी
दिन हो के रात, दबी रहती है बोझ में….
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ज़मीन ने सवाल उठाए हैं कई
बे-सरहद बे-लगाम सा है…
तकता रहता है दामन पसारे
कुछ बोलता क्यों नही, क्या चाहिए उसे?
आसमान, बिजली चमका के बरस जाता है
भिगो के भर देता है ज़मीन का आँचल थोड़ा और
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ये ज़मीन और आसमान कहीं तो मिलते होंगे
कहीं तो होती होगी ये बहस ख़त्म
कभी तो मिलते होंगे गले ये
बाँटते होंगे तक़लीफें अपनी
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फिर कल रात एक अंजुमन देखी….
ज़मीन भेज रही थी कुछ बिजलियाँ;
फेंकती थी कुछ रोशनियाँ आसमान की ओर
और आसमान खिल उठता था रंगों से
बाहें खोल के ले रहा था सारे तोहफे.
दौड़ रहे थे उजले, जगमगाते, मुस्कुराते तारे
दोनों की तहें एक कर के
ज़मीन आसमान सी थी और आसमान ज़मीन सा….
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ishQ
24th October 2014
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