हर इंतेहाँ का अंजाम, ज़रूरी नही
हर सज़ा का इल्ज़ाम, ज़रूरी नही
तुम्हारी गुज़ारिश ज़रूरी है मगर
आए उनका भी सलाम, ज़रूरी नही
तराना-ए-महफ़िल गुनगुनाया भी अगर
तुम्हारे लिए हो वो पयाम, ज़रूरी नही
उम्र भर जिस फ़ैसले का इंतेज़ार हो
आख़िर हो जाए अपने नाम, ज़रूरी नही
हर रात अंधेरा लाती है मगर
सियाह हो हर शाम, ज़रूर नही
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